Diary

Monday, October 06, 2008

कामिक्स हमारे बचपन की अभिन्न साथी रही है। गर्मी की तपती दोपहर में राहत लाती थी वो रंगीन कहानियाँ जो पहचाने से पात्रों के साथ हर हफ्ते हमारे साथ होती थी। जिस किसी ने भी इनका लुत्फ़ उठाया है, फ़िर चाहे वो मांग के हो, छीन के हो, या किताब के बदले किताब ले के हो। हम भाइयों में न जाने कितने झगड़े उनको पहले पढने में हुए हैं। कहानियों के किरदारों की बोली हमारी बोली से मिल गई, यहाँ तक की हमारे झगड़े और मजाक भी 'धडाम', 'ढिशुम' और 'धायं' जैसे शब्दों से भरे होते थे। हाय, कितने प्यारे दिन थे।
इन में से जिसकी याद मुझे सब से ज्यादा आती है वो है 'मधु मुस्कान'। यह साप्ताहिक पत्रिका हमारे पूरे मुहल्ले की प्रिये थी। मैंने कई बार इसके अंक internet पर ढूँढने की कोशिश की पर हर बार यही दीखता की लोग मेरी तरह शिद्दत से इसकी तलाश तो कर रहे हैं पर कहीं इसके अंक हैं नहीं। फ़िर एक बार मुझे इसके कुछ अंक एक पुरानी किताब बेचने वाले के पास मिल गए। मैंने बहुत चाहा की जल्दी से उनको scan करके सब के साथ share करूँ, पर किसी न किसी कारण से टालता रहा।
लेकिन आज मैंने एक अंक scan कर ही लिया ! आशा है आप सबको पसंद आयेगा। अगर आप लोगों को यह पसंद आया तो मैं बाकी के अंक भी upload करूँगा।
गौरव